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नई दिल्ली। वर्ष 2004 से 2008 के दौरान कम्युनिस्टों ने भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए कांग्रेस को समर्थन देने का फैसला किया था। सवाल उठता है कि क्या एक बार फिर क्या कामरेड वही फैसला दोहराएंगे। लेकिन ये भी सच है कि जब देश बदलाव के कगार पर खडा हो तो भारत में कभी अहम भूमिका निभाने वाले राजनीतिक संगठन यानी कम्युनिस्ट अप्रासंगिक नहीं रह सकते हैं। 1960 और 1970 के दशक के दौरान कामरेडों का प्रभाव कुछ राज्यों तक सीमित रहा। उस समय एसए डांगे, एके गोपालन, हीरेन मुखर्जी, ज्योति बसु और ई एमएस नंबूदरीपाद जैसे लोगों के कारण कामरेड महत्वपूर्ण आवाज बने रहे। यहां तक कि मुख्य धारा की कम्युनिस्ट पार्टी के दो टकडों- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा)- में विभक्त होने के बाद वामपंथी अपनी ताकत के कारण मिट नहीं सके। केरल में 1957-59 के दौरान ये पहली बार सत्ता में आए और फिर उसके बाद 1967 में थोडे समय के लिए पश्चिम बंगाल में इन्हें सत्ता मिली थी। बाद में 1977 में पश्चिम बंगाल में जब कम्युनिस्टों को सत्ता मिली तो तीन दशक के लंबे समय तक वहां इनका राज रहा। अब हालांकि कामरेडों की पकड ढीली पड गई है। कम्युनिस्टों का पतन 2008 में तब शुरू हुआ, जब उन्होंने भारत-अमेरिका परमाणु करार के मुद्दे पर कांग्रेस नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) से नाता तोड लिया। वामपंथी रूझान वाले नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अमर्त्य सेन ने चेतावनी दी थी कि इससे कम्युनिस्ट कमजोर होंगे। और वास्तव में वही हुआ है। कम्युनिस्ट आज खामोशी की उस अवस्था में पहुंच चुके हैं, जहां न तो उनके विचार और न ही उनकी राजनीतिक युक्ति को कोई महत्व दिया जाता दिखाई दे रहा है। &nbह्यp;
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