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गणतंत्र दिवस 26 जनवरी : अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और संविधान
khaskhabar.com : शनिवार, 25 जनवरी 2025 8:27 PM
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में यह विडम्बना ही मानी जाएगी कि संविधान में महज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रावधान के बलबूते प्रेस लोकतंत्र का चौथा खम्भा गिना जाता है या माना जाता है और मौका आने पर शासन प्रशासन ने इस पर अंकुश लगाने में चूक नहीं की। बावजूद इस हालात के प्रेस लोकतंत्र का अहम हिस्सा तो है।
सवाल यह है कि आजादी की लड़ाई मे एक धारदार हथियार के रूप में इस्तेमाल हुई प्रेस आजादी के 75 वर्ष बीतने पर एक राष्ट्रीय संस्था के रूप में परिवर्तित क्यो नही हो पायी। हमारी पत्रकारिता मीडिया तक के सफर में कहां आ पहुंची है, इसकी समीक्षा भी करनी होगी और चिंता भी।
यदि हम ईमानदारी से और यह जरूरी भी है कि आत्मनिरीक्षण करे तो यही पायेंगे कि अब पत्रकारिता के सरोकार बदल चुके है।
हम आजादी की लडाई में पत्रकारिता के मिशन की बात करते थे जो बाद के वर्षो में फैशन व्यवसाय अथवा पेशा (प्रोफेशन) का रूप धरते हुए आज धंधे की चौखट तक आ पहुंची है और वह भी घटिया दर्जे की हद तक। पत्रकारिता की प्रवृत्ति बदलने के साथ और भी बहुत कुछ बदल गया है। पत्रकारिता के मापदण्ड के साथ इसके अहम मूल्यों के प्रति पत्रकारों की प्रतिबद्वता पर भी आंच देखी और अनुभव की जा सकती है। अपवाद उंगलियों पर गिने जाने लायक रह गए है पर हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं।
एक जमाने मे पत्रकारिता का सामाजिक सरोकार होता था अथवा माना जाता था और इन स्थापित सामाजिक मूल्यों पर जब भी और जहां भी किसी भी रूप मे प्रहार होता था तब उसके प्रतिकार में अग्निधर्मा पत्रकार की कलम आग उगलने लगती थी। सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक विकृतियों पर कलम धड़ल्ले से चलाई जाती थी और इसकी पैनीधार से लक्षित तिलमिला जाता था। अब समूचा परिदृश्य बदल सा गया है। पत्रकार की कलम प्रायः गिरफ्त में आ चुकी है और उसकी इच्छा या निहित स्वार्थो की अमली जामा पहनाने के लिए उपयुक्त शब्दों की दरकार तक सिमट गई है।
इस खेल में जब आर्थिक तंत्र हावी हो चुका है तब पत्रकार की भूमिका पत्र-पत्रिकाओं के लिए महज फिलर भरने के कौशल का नमूना बन गई है। इसलिए कहा जाता है कि अब विज्ञापनों में ‘समाचार‘ फिट किए जाते हैं या यो कहे कि समाचार ही विज्ञापन का रूप लेते जा रहे हैं।
आपातकाल में प्रेस सेंसरशिप के बहाने कुछ अपवादों को छोड़ प्रेस ने रीढ़विहीन भूमिका भी निभायी पर इसके साथ पत्रकारों के वेतन सुविधा में बढ़ोतरी का एक नया सिलसिला भी शुरू हुआ।
संपादक संस्थान के पतन की शुरूआत ने अनुबंध पत्रकारिता के चलते हजार के वेतन को लाखों तक पहुंचा दिया है। लेकिन इससे महानगरोें तथा छोटे नगरों कस्बों में कार्यरत पत्रकारों के इस वर्ग में आर्थिक एवं सामाजिक स्तर की खाई को इतना गहरा कर दिया है कि उसे पाटना मुश्किल लगता है। अलबत्ता आर्थिक उदारीकरण तथा पत्रकारिता के वाणिज्यिक परिवेष ने हर स्तर पर पत्रकारोें को प्रलोभन के मकड़ जाल में इस कदर उलझा दिया है कि इसे तर्कसंगत ठहराने में भी शरम महसूस नहीं की जाती। इस होड़ में सत्तारूढ़ दल फिर क्यों पीछे रहने चाहिए वे भी कतिपय आवश्यक सुविधाओं की आड़ में अपना मनोरथ पूरा करने मे नही चूकते। दुर्भाग्य से प्रेस क्लब जैसी संस्थाएं भी इसी खेल में मददगार बन जाती है।
पत्रकारिता के मूर्त रूप अखबार के सम्बन्ध में प्रतिपक्ष के नेता के नाते अटल बिहारी वाजपेयी का जयपुर में वर्ष 1995 में एन.यू.जे.आई. के राष्ट्रीय अधिवेषन में दिया भाषण-‘‘अखबार केवल समाचार नही है अखबार एक विचार भी है। अखबार कभी एक आंदोलन बन जाता है। अखबार परिवर्तन का संदेश और वाहक भी है। अखबार जाति और सत्ता के दुरूपयोग के खिलाफ एक आवाज भी है।
अखबार समग्र है। इलेक्ट्रानिक मीडिया टुकडों में है। हम पत्रकार साथियो के लिए चिंतन का आधार बन सकता है। पत्रकारिता केवल वाक्यिानवीसी नहीं वरन गहरे नैतिक अर्थो में एक आलोचना कर्म की वजह से सांस्कृतिक कर्म भी बन जाती है। समय चाहे कितना बदल जाए नित नई तकनीक आ जाए। लेकिन, स्वतंत्रता निर्भीकता एवं सत्यनिष्ठा ही पत्रकारिता के मूल आदर्श बने रहेंगे-इसमे किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए।
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